Agricultureमोटे अनाज रागी की खेती | Finger Millet Farming

मोटे अनाज रागी की खेती | Finger Millet Farming

रागी की खेती (Finger Millet Farming): रागी! जिसे मोटे अनाज के तौर पर हम जानते हैं, अंग्रेजी में रागी को फिंगर मिलेट (Finger Millet) तथा देशी भाषा में रागी को मडुआ कहा जाता है. आप जानते ही है कि आज के दौर में खुद को स्वस्थ्य रख पाना कितना कठिन होता जा रहा है, इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आज इस दौड़ भाग की लाइफस्टाइल में हममें से अधिकतर लोग अपने खानपान (भोजन) पर कोई विशेष ध्यान नहीं देते.

आज बाजार में ढेरों ऐसे उत्पाद मौजूद हैं जो मनुष्य शरीर के पोषण के लिए उत्तरदायी है, असल में इनमें से अधिकतर उत्पाद इतने मंहगे हैं, जिसे एक साधारण व्यक्ति द्वारा निरंतर खरीदकर उपभोग में ले पाना कठिन होता है. आज जानते ही हैं कि हमारा देश भारत! पूर्ण रूप से आज भी एक कृषि प्रधान देश है, यहाँ की लगभग 60 से 65 फीसदी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है.

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दूसरा प्राचीन काल से ही भारत में कई तरह के मोटे अनाजों का उपयोग भोजन के तौर पर होता आ रहा है. ऐसे में मोटे अनाज जैसे- ज्वार, बाजरा, कोदो और रागी की खेती करना देश के किसानों के लिए एक कम लागत निवेश के साथ तगड़े मुनाफे का विकल्प साबित हो सकती है. बशर्ते मोटे अनाज की खेती को चरण-दर-चरण और निर्धारित प्रक्रिया के मुताबिक किया जाए.

आज इस पोस्ट के माध्यम से हम आपके साथ मोटे अनाज “रागी की खेती” के बारे में विस्तार से चर्चा करने जा रहे हैं, तो चलिए जानते हैं कि रागी की खेती करने के लिए किन-किन घटकों मसलन- बुवाई, उन्नत किस्में, उपयुक्त जलवायु व फसल सिंचाई आदि पर विचार करना जरूरी है.

साथ ही इसकी खेती में लागत और मुनाफा कितना होता है? इसके अलावा मोटे अनाज विशेषकर रागी की आवश्यकता क्यों बढती जा रही है? इन सभी प्रश्नों के साथ रागी की खेती से सम्बन्धित विषयों के बारे में और भी चर्चा करेंगे, चलिए शुरू करते हैं-

रागी की खेती के लिए अनुकूल जलवायु-

इतिहास के पन्नों को खंगालने से संकेत मिलता है कि मोटे अनाज रागी (Ragi) को भारत में लगभग 4000 साल पहले अफ्रीका महादीप से लाया गया था. रागी का पौधा सख्त जलवायु का पौधा माना जाता है क्योंकि रागी के पौधे में सूखे को बर्दाश्त करने की कमाल की क्षमता होती है, साथ ही रागी का पौधा सामान्य जल भराव जैसी स्थिति को भी बेझिझक आसानी से बर्दाश्त भी कर लेता है.

अमूमन मोटे अनाज जैसे रागी की फसल (Finger Millet Corp) को शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है. इसके साथ ही रागी पथरीले, चट्टानी व रेतीली भूमि पर भी आसानी से पनप सकता है और रागी को मल्टीलेयर कृषि के तहत भी आसानी से लगाया जा सकता है.

रागी फसल बुवाई का समय-

भारत के अधिकांश कृषकों द्वारा पारम्परिक तौर पर रागी फसल की बुवाई मई के अंतिम सप्ताह से लेकर जून के तीसरे सप्ताह तक की जाती है. भारत की परिवर्तनीय जलवायु के कारण मई जून का महीने का तापमान रागी की बुवाई के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है.

इसके अलावा भारत के कुछ क्षेत्र ऐसे भी है जहाँ तापमान विविधता के कारण रागी की बुवाई जून के बाद भी की जाती है. अमूमन रागी को खरीफ फसल की श्रेणी में गिना जाता है, और खरीफ फसलो की बुवाई शुष्क/गर्मी के सीजन में की जाती है.

क्या रागी की जायद फसल चक्र में बुवाई की जा सकती है?

भारत के कुछ अनुभवी किसान रागी की बुवाई जायद में भी करते हैं. वैसे रागी की खेती (Finger Millet Cultivation) खरीफ फसल चक्र (मई से जून अंतिम तक) के तहत की जाती है. खरीफ फसल चक्र तहत आने वाली फसलें हैं-

मोटे अनाज जैसे- रागी, बाजरा
चावल,
मक्का,
काली मिर्च,
सोयाबीन,
मूंगफली,
कपास और
टमाटर इत्यादि।

जायद फसल कौन-कौन सी है?

भारत के उत्तरीय भाग में जायद फसलों की बड़े पैमाने पर बुवाई की जाती है, क्योंकि जायद श्रेणी की फसलों में तेज, गर्म और शुष्क हवाएँ सहने की तगड़ी क्षमता होती हैं. जायद श्रेणी की फसलें मुख्य तौर पर (फ़रवरी के अंतिम सप्ताह से लेकर) मार्च से अप्रैल तक बोई जाती हैं. ये फसलें हैं-

तरबूज,
खीरा,
खरबूजा,
ककड़ी,
मूंग,
चना,
उड़द,
सूरजमुखी

रागी की खेती के लिए मिट्टी का चयन-

भारत में पाई जाने वाली हर प्रकार की मिटटी/भूमि रागी की खेती के लिए उपयुक्त है. मतलब भारत के किसी भी प्रान्त में रागी की खेती को आसानी से किया जा सकता ही. व्यवसायिक तौर पर कार्बनिक पदार्थ से युक्त बलुई दोमट मिट्टी को रागी की खेती के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है.

इसके अलावा इच्छुक किसान किसी भी प्रकार की मिट्टी का चयन कर सकते हैं, साथ ही रागी की सफल खेती के लिए यह आवश्यक है कि चयनित मिट्टी में किसी भी प्रकार से जल भराव की स्थिति न उत्पन्न हो,  रागी की खेती के लिए भूमि का pH मान 5.5 से 8 के बीच में हो जरूरी होता है.

खेत की तैयारी-

  1. रागी फसल (ragi crop) के लिए चयनित खेत की सफाई करना प्रथम चरण होता है, इसके लिए खेत में हलकी जुताई व मिट्टी पलटने की प्रक्रिया को संपन्न कर कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दिया जाता है, जिससे खेत में मौजूद अवशेष, खरपतवार और अवांछित घटक नष्ट हो जाये.
  2. अधिकतम एक सप्ताह के बाद खेत व फसल की आवश्यकतानुसार गोबर की खाद व कैल्सियम डालकर 2-3 आडी-तिरछी गहरी जुताई कल्टीवेटर से करना होता है. जिससे खाद का खेत में समुचित फैलाव व निस्तारण हो जाये,
  3. इसके बाद रोटावेटर से मिट्टी को भुर-भुरी बनाकर खेत की मिट्टी को फसल बुवाई के समतल/तैयार कर फसल अंकुरण के लिए बीज की बुवाई की जाती है.

रागी की उन्नत किस्में (Ragi Improved Varieties)

बाजार में रागी की कई उन्नत किस्म देखने को मिलती है. कुछ किस्में जो कम समय में अधिक पैदावार देती है. ये हैं-

  1. जी.पी.यू. 45– (यह रागी की जल्दी पकने (104 से 109 दिन में) वाली नयी किस्म है, यह किस्म झुलसन रोग के लिये प्रतिरोधी भी है)
  2. चिलिका (ओ.ई.बी.-10)– (यह रागी की 120 से 125 दिन में पकने वाली किस्म है, झुलसन रोग के लिये मध्यम तथा तना छेदक कीट के लिये विशेष प्रतिरोधी है)
  3. शुव्रा (ओ.यू.ए.टी.-2)-(यह किस्म सभी झुलसन के लिये मध्यम प्रतिरोधी तथा पर्णछाद झुलसन के लिये प्रतिरोधी है)
  4. भैरवी (बी.एम. 9-1)-(यह किस्म म.प्र. के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं आंध्रप्रदेश के लिये सबसे उपयुक्त है, 103 से 105 दिन में तैयार होने वाली तथा इस किस्म एसा झुलसन व भूर धब्बा रोग तथा तना छेदक कीट के लिये मध्यम प्रतिरोधक क्षमता भी होती है)
  5. वी.एल. 149– (आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू को छोड़कर देश के सभी मैदानी एवं पठारी भागों के लिये सबसे उपयुक्त किस्म, पकने की अवधि 98 से 102 दिन तथा औसत उपज क्षमता 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर साथ ही यह किस्म झुलसन रोग के लिये प्रतिरोधक क्षमता भी रखती है)
  6. जे.एन.आर. 852,
  7. जे.एन.आर. 1008,
  8. पी.इ.एस. 400,
  9. आर.एच. 374
  10. ई.सी. 4840,
  11. पंत रागी-3 (विक्रम) आदि उन्नत वैरायटी है.

बीज बुवाई का तरीका-

रागी के दानों को छिड़काव विधि अथवा ड्रिल (छेद बनाकर) दोनों तरीकों से बोया जा सकता है. छिड़काव विधि (छिंटवा विधि) में बीज को खेत में बिखेरा जाता है, उसके बाद बीज पर मिट्टी की परत चढाने के लिए कल्टीवेटर से हल्की जुताई कर पाटा लगाया जाता है.

ड्रिल (छेद बनाकर) विधि से रागी की बिजाई मशीनों व हाथों द्वारा कतारबद्ध तरीके से की जाती है. बुवाई के समय कतार से कतार की दूरी 8 से 12 इंच और बीज से बीज की दूरी 3 से 5 इंच रखी जाए तो पैदावार अच्छी होती है.

इसके साथ ही रागी बीज को मिट्टी के भीतर एक से दो अंगुल (आधा इंच) ही दबाना होता है, जिससे बीज अंकुरण जल्द हो सके. छिंटवा विधि को छोड़कर अन्य किसी विधि से रागी की खेती करने के लिए सबसे उपयुक्त है कि नर्सरी में बीज से पौध तैयार की जाये, उसके बाद ही खेत में पौध को रोपा जाये, इससे फसल की पैदावार अच्छी मिलती है.

बुवाई से पहले बीजों को उपचारित किया जाना अनिवार्य चरण है, उपचारित करने के लिए थीरम, बाविस्टीन अथवा कैप्टन दवा का उपयोग किया जाता है. इसके अलावा कतार विधि से बुवाई करने के लिए 8 से 10 किलो बीज प्रति हेक्टेयर तथा छिंटवा पद्धति से बुवाई करने के लिए 12-15 किलो बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है.

रागी फसल की सिंचाई-

अमूमन रागी की खेती (ragi cultivation) में कोई विशेष सिचाई की जरूरत नहीं पड़ती है. यदि मानसूनी बारिस सही समय पर न हो तो बुवाई के लगभग एक महीने के बाद रागी की फसल को पानी/सिचाई की आवश्यकता होती है.

इसके बाद जब पौधों पर फूल और उसके बाद जब दाने आने लगते हैं तब पौधे को पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है. साधारण तौर पर 10 से 15 दिन के अंतर अथवा खेत शुष्क/कठोर हो जाने पर फसल की सिचाई की जा सकती है.

खाद एवं उर्वरक की आवश्यकता-

अमूमन खेत की तैयारी के दौरान खेत की मिट्टी में गोबर की खाद (100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) डालना ही पर्याप्त होता है, इसके बाद जब पौधे में फूल आने लगते हैं तब 40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन व 40 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से निराई, गुड़ाई कर रागी की फसल को देना जरूरी होता है.

खाद डालने के बाद खेत की हल्की सिचाई भी जरूरी है, इसके बाद यदि आवश्यक हो तो जब पौधे में फल (रागी की बाली) आना शुरू हो तो 20-35 कि.ग्रा. नाइट्रोजन व 20-35 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से निराई, गुड़ाई कर रागी की फसल को दिया जा सकता है.

खरपतवार का नियंत्रण-

रागी की सफल खेती में खरपतवार नियंत्रित करने की प्रक्रिया की भूमिका सबसे अहम स्थान रखती है, अमूमन खरपतवार को मौलिक रूप नियंत्रित करने के लिए समय-समय पर खेत की निराई व गुड़ाई करते रहना अनिवार्य चरणों में से एक है.

बुवाई के लगभग 30 दिन के भीतर पहली निराई प्राथमिकता पर जरूरी है. इसके अलावा अवांछित खरपतवार नियंत्रित करने के लिए बीज बुवाई से पहले खेत में आइसोप्रोट्यूरॉन या ऑक्सीफ्लोरफेन का छिड़काव करें.

सुझाव-

किसी भी प्रकार के केमिकल का छिड़काव करने से पूर्व अपने प्रदेश अथवा क्षेत्र के सहकारी, गैर सहकारी अथवा विषय विशेषज्ञ से परामर्श जरूर कर लें.

रागी में लगने वाले रोग व उनका उपचार-

लगभग हर फसल की तरह रागी की पौधे को भी कीटों के आक्रमण व संक्रामक रोगों से बचाव किया जाना जरूरी होता है. रागी के पौधे में अमूमन कुछ रोग देखने को मिलते हैं-

जैसे- कीट आक्रमण, फफूंद जनित झुलसन एवं भूरा धब्बा रागी की प्रमुख रोग-व्याधियां है, जिनका यदि समय पर निदान न किया उपज में तगड़ी हानि होने की सम्भावना बढ़ जाती है. खैर इनका उपचार आसान है और सरलता से किया जा सकता है. आइये इसे विस्तार से जानते हैं-

झुलसन रोग-

इस रोग से संक्रमित पौधे की पत्तियों में भिन्न-भिन्न आकर के आंख के समान गोल धब्बे बन जाते है, जिससे पौधे की पत्तियां प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया नहीं कर पाती हैं, जिस कारण पौधा धीरे-धीरे मुरझाकर सूखने लगता है, यदि समय पर उपचार न किया जाये तो पौधा मर भी सकता है.

उपचार-

  1. बुवाई से पूर्व बीजों को फफूंद नाशक दवा- मेनकोजेव, कार्वेन्डाजिम या इनके मिश्रण से 02 ग्राम/कि.ग्रा. बीज दर से उपचारित कर बुवाई की जाये.
  2. अगर खड़ी फसल पर झुलसन रोग के लक्षण दिखें तो कार्वेन्डाजिम, कीटाजिन या इडीफेनफास 01 मि.ली./लीटर पानी) या मेनकोजेव 2.5 ग्राम/लिटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए, इसके साथ ही इस प्रक्रिया को हर 10 से 12 दिन में दोहराते रहे, जब तब पौधा रोग से मुक्त न हो जाये.
  3. स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स का छिड़काव (0.2 प्रतिशत) भी झुलसन के संक्रमण को रोकता है. इसलिए इसका उपयोग किया जा सकता है.

भूरा धब्बा रोग –

व्यापक रूप से भूरा धब्बा रोग फफूंद जनित रोग है, पौधे की लगभग सभी अवस्थाओं में इसका संक्रमण हो सकता है. इसका संक्रमण होने पर बाली के दानों का उचित विकास नहीं हो पाता, यदि समय पर उपचार न किया जाये तो उत्पादन में भारी नुकसान हो सकता है.

उपचार-

इसका उपचार करने के लिए ऊपर जो झुलसन रोग के उपचार बताये गए हैं, उन्हें ही किया जाना श्रेयस्कर है.

कीट, तना छेदक व बालियों की सूड़ी का उपचार-

कीट व तना छेदक के लिए डाइमेथोऐट या फास्फोमिडान या न्यूवाक्रान दवा 1 से 1.5 मि.ली./लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव तथा बालियों की सूड़ी (भूरे रंग की रोयेंदार इल्लियां) आदि से बचाव के लिए क्विनालफास (1.5 प्रतिशत) या थायोडान डस्ट (4 प्रतिशत) का प्रयोग 24 कि.ग्रा./हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए.

फसल की कटाई-

रागी की प्रत्येक किस्म की अधिकतम 120 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है. हालाँकि कुछ उन्नत किस्मों की हार्वेस्टिंग इससे पहले भी संभावित रहती है. तैयार हो जाने के बाद पौधे से रागी की बालियों को दराती औजार से काट लिया जाता है.

हार्वेस्ट कर लेने के बाद बालियों को ढेर बनाकर धूप में कुछ दिनों के लिए सुखाया जाता है है, इसके बाद थ्रेशिंग के माध्यम से बाली में से रागी को अलग करने की प्रक्रिया की जाती है.

पैदावार और लाभ-

प्रति हेक्टेयर रागी की फसल से औसतन पैदावार 25 क्विंटल तक पैदावार हो जाती है. जिसका मौजूदा बाजार भाव लगभग 2500 से 3000 रूपये प्रति क्विंटल के आस पास देखने को मिलता है. इस हिसाब से रागी उगाने वाले कृषकों को लगभग 60 से 75 हजार रूपये तक कमाई हो सकती है.

इसके अलावा यदि इच्छुक किसान और मुनाफा बनाना चाहते हैं तो उन्हें अपने उत्पाद की मार्केटिंग और पैकिंग पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है.

हमारे द्वारा किये गए सर्वे में एक बाजार विशेषज्ञ से भारत के किसानों की दुर्दशा के बारे कुछ प्रश्न किये गए, जिसका सारांश नीचे दिया गया है-

प्रश्न- भारत के किसान की दुर्दशा क्यों हो रही है?

उत्तर- इस प्रश्न के सम्बन्ध में उनका कहना है कि भारत के अधिकतर किसान के मेहनत करना जानते हैं, मार्केटिंग नहीं. इसका आशय यह है कि किसान साक्षर हो सकता है किन्तु जागरूक नहीं, जिसका फायदा अधिकतर बिचौलिए उठा लेते हैं.

इस सम्बन्ध में वे कहते हैं कि भारत के अधिकतर किसानों की मानसिकता में आज भी वो पैटर्न छपे हुए हैं, कि फसल की पैदावार करो और उसे बाजार भाव के अनुसार बेच दो, यदि इसी तर्ज पर प्रक्रिया की जाएगी, तो केवल उतना ही कमा सकते हैं, जितने में केवल गुजारा हो सके.

आज ई-कामर्श जैसी ऑनलाइन पोर्टल पर रागी जैसे अनाज के 01 किग्रा की कीमत देखिये कितनी है, और वो उसकी कीमत पर बिक भी रहा है. यदि देश के किसानों को अपनी आमदनी बढ़ानी है तो उन्हें भी अपने उत्पाद की मार्केटिंग और सुन्दर पैकिंग जैसे घटकों में निवेश करना जरूरी है क्योंकि बाजार का नियम है “जो दिखता है वही बिकता है.”

प्रश्न- भारत का किसान खुद को असहाय क्यों समझता है?

उत्तर- इसके जवाब में उनका कहना है कि भारत के किसानों में संगठन/एकता का आभाव होना. कुछ किसान थोड़ा अधिक मुनाफा बनाने के लिये अन्य किसानों की परवाह नहीं करते है, जिससे वे बाजार भाव में तबदीली ला देते है.

ऐसे में कुछ तो अच्छा मुनाफा बना लेते हैं, लेकिन वहीँ कुछ किसानो को न्यूनतम से न्यूनतम दरों पर सौदा करने को विवश होना पड़ता है. जिस कारण एक बड़ी संख्या में भारत का किसान खुद को असहाय महसूस करता है.

अंत में-

भारत में रागी को कई अलग-अलग नामों जैसे- नाचनी, मडुआ, मारवा, नागली, मंडल नाचनी व मोटा अनाज, देशी अनाज आदि से जाना जाता है. साथ ही रागी की खेती को भारत सहित अफ़्रीका और एशिया के शुष्क इलाकों में तिलहन फ़सलों के साथ किया जाता है.

देशी अनाज जैसे- ज्वार, बाजरा विशेषकर रागी की मांग मौजूदा समय में तीव्रता से उछाल आता जा रहा है, इस लिहाज से आंकलन किया जाये तो आने वाले निकट भविष्य में रागी की तीव्रता से बढ़ने वाली है, और जब मांग बढ़ेगी तो इसका उत्पादन करने वाले किसान भी अच्छा मुनाफा बना पाएंगे.

आशा है कि इस लेख ‘मोटे अनाज रागी की खेती (Finger Millet Farming)’ से आपको रागी/मडुआ की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी जरूर मिली होगी, इसके अतिरिक्त यदि कुछ छूट गया हो या कुछ पूछना/कहना चाहते हों तो कृपया Comment Box में लिखें, साथ ही इस जानकारी को अपने दोस्तों के साथ share करना न भूलें। अभी के लिए इतना ही….

शुभकामनाएं आपकी कामयाब खेती और सफल व्यापारिक भविष्य के लिए.

धन्यवाद!

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